’प्राकृत भाषा का स्वरूप एवं उसके विविध आयाम’ विषय पर व्याख्यान
भारतीय संस्कृति की परिचायक है: प्राकृत भाषा- प्रो. भट्टाचार्य
लाडनूँ, 26 फरवरी 2022। जैन विश्वभारती संस्थान विश्वविद्यालय के प्राकृत एवं संस्कृत के विभाग के तत्वावधान में ‘भारत का गौरव: प्राकृत भाषा एवं साहित्य’ विषयक मासिक व्याख्यानमाला के अन्तर्गत आयोजित अष्टम व्याख्यान में बंगाल के विश्व भारती विश्वविद्यालय, शान्तिनिकेतन के संस्कृत, पाली एवं प्राकृत विभाग के प्रो. जगतराम भट्टाचार्य ने ’प्राकृत भाषा का स्वरूप एवं उसके विविध आयाम’ विषय पर अपना व्याख्यान दिया। प्रो. भट्टाचार्य ने प्राकृत भाषा को भारतीय संस्कृति की परिचायक के रूप में बताते हुए कहा कि प्राकृत भाषा प्राचीनकाल से ही भारत की जनबोली के रूप में प्रचलित रही है। यह भाषा दो रूपों में हमें प्राप्त होती है, प्रथम कथ्य और दूसरा साहित्यिक। दोनों ही रूपों में प्राकृत भाषा बहुत ही समृद्ध भाषा के रूप में रही है। इस भाषा का समय 600 ई.पू. से 1000 ई. तक का माना गया है। प्रो. भट्टाचार्य ने प्राकृत भाषा की उत्पत्ति, उसका विकास एवं इस भाषा में रचित साहित्य का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया। अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. दामोदर शास्त्री ने प्राकृत को जनसामान्य की भाषा बताते हुए आह्वान किया कि इसके विकास में सभी अपना योगदान दें, क्योंकि भाषा बचेगी तो संस्कृति बचेगी। उन्होंने छोटे-छोटे उदाहरणों के माध्यम से इसकी उपयोगिता सिद्ध की। विभाग की सह-आचार्या डॉ. समणी संगीतप्रज्ञा ने प्रारम्भ में स्वागत भाषण दिया। कार्यक्रम का शुभारम्भ अच्युतकान्त शास्त्री के मंगलाचरण से किया गया तथा संयोजन डॉ. सत्यनारायण भारद्वाज ने किया। कार्यक्रम में देश भर से 40 प्रतिभागियों ने सहभागिता की।
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