महाविनाश से बचने के लिये महावीर को अपनाना होगा - प्रो. भट्टाचार्य
लाडनूँ, 16 अप्रेल 2019। जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म व दर्शन विभाग के तत्वावधान में महावीर जयंती के अवसर पर विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुये कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ ने महावीर और महाविनाश को विश्व के सामने दो विकल्प बताये और कहा कि अगर महाविनाश से बचना है तो महावीर के सिद्धांतों को अपनाना होगा। उन्होंने विश्व में मानव जीवन पर संकट के रूप में परमाणु शस्त्र, पर्यावरण संकट एवं वैचारिक आग्रह को सबसे बड़े कारण के रूप में माना और कहा कि इन चुनौतियों और संकटों से बचने के लिये महावीर के तीन सूत्रों को अपनाना होगा। संयम, अपरिग्रह और अनेकांत को स्वीकार करने पर समस्याओं से छुटकारा मिलना संभव है। संयम का पालन करने पर तीनों से संकटों से मुक्ति मिल सकती है। महाविनाश से बचने का तरीका संयम ही है। इससे पर्यावरण को संकट से बचाया जा सकता है। उपभोग का संयम प्रकृति की रक्षा करता है। इससे क्रूरता भी कम होती है। उन्होंने अपरिग्रह को महावीर का सबसे बड़ा सिद्धांत बताया तथा कहा कि परिग्रह को जितना हो सके सीमित करना चाहिये। उन्होंने आत्मनिर्भरता के बजाये परस्पर-निर्भरता को अपनाने से झगड़े समाप्त होना संभव बताते हुये कहा कि आत्मनिर्भरता से अहंभाव बढता है। प्रो. दूगड़ ने अनेकांत को वैचारिक अनाग्रह बताते हुये कहा कि हमें वैचारिक संकीर्णता से निकलना होगा। कोई व्यक्ति क्या कहता है, से अधिक कैसे कहता है और उससे भी अधिक किस भाव से कहता है, महत्वपूर्ण होता है। क्या कहता है गौण है और सबसे ज्यादा ध्यान भाव पर देना चाहिये। उन्होंने कहा कि महावीर को मनायें, लेकिन उनके सिद्धांतों को भी अपनायें, तभी जन्म जयंती का आयोजन सफल होगा और सृष्टि को बचाने के उत्तरदायित्व को भी सभी निभा पायेंगे।
अहिंसा को पुस्तकों तक सीमित नहीं रखें
पं. बंगाल के शांति निकेतन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जगतराम भट्टाचार्य ने कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुये कहा कि महावीर की वार्तायें, उनकी शिक्षायें सभी त्रैकालिक हैं। वे सभी काल के लिये समान रूप से आवश्यक हैं। महावीर के दर्शन में अहिंसा के तत्व को सबसे बड़ा तत्व बताते हुये उन्होंने कहा कि अहिंसा को पुस्तकों तक सीमित नहीं रखना चाहिये, क्योंकि महावीर ने अहिंसा का प्रतिपादन पराकाष्ठा तक किया था। महावीर के शास्त्र के कुछ ही तत्वों को जीवन में अपने आचरण पालन में उतार लेने से जीवन सफल हो सकता है। प्रो. भट्टाचार्य ने भावक्रिया पर जोर देते हुये कहा कि जो भी काम करो, उसमें तल्लीनता से पूरे मन से करना चाहिये। जैन दर्शन में गमन-योग में चलने-फिरने तक में योग साधना का प्रयेाग बता दिया गया है। उन्होंने महावीर द्वारा प्रतिपादित समता के भाव को जीवन की सफलता के लिये आवश्यक बताया तथा कहा कि हमें सुख और दुःख के भावों को संतुलित करना सीखना होगा।
अनेकांत से आता है जीवन में बदलाव
दूरस्थ शिक्षा निदेशक प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने महावीर के दर्शन से अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत के तीन सूत्रों को आचरण में उतारने की जरूरत बताई और कहा कि महावीर के दर्शन के अलावा अनेकांत का विचार अन्य कहीं नहीं मिलता। अनेकांतवाद या स्याद्वाद का सिद्धांत महत्वपूर्ण है, इसे जीवन में उतारने पर बदलाव आते हैं। जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म व दर्शन विभाग की विभागाध्यक्ष प्रो. समणी ऋजुप्रज्ञा ने महावीर के जीवन की दो बातों को महत्वपूर्ण बताया तथा कहा कि अप्रमत्तता व सहिष्णुता का जीवन उनकी विशेषता था। वे सतत आत्मा की स्मृति में रहते थे, ताकि कभी किसी का बुरा नहीं हो पाये और मरणांतक कष्टों को भी सहन करना उनकी विशेषता ही था। उन्होंने महावीर के समता धर्म को सबसे बडा़ धर्म बताया तथा कहा कि किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होना चाहिये। सभी स्थितियों में समभाव रखना चाहिये। कार्यक्रम में प्रशांत जैन ने भी अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम का प्रारम्भ मुमुक्षु बहिनों के मंगलाचरण द्वारा किया गया। कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के समस्त शिक्षक, विद्यार्थी एवं कार्मिक उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन डाॅ. योगेश कुमार जैन ने किया।