संस्थान में राजस्थानी भाषा अकादमी के सप्त दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय राजस्थानी समर स्कूल का आयोजन

राजस्थानी भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति के चहुंमुखी विकास के लिये सामूहिक प्रयास जरूरी- प्रो. दूगड़

लाडनूँ, 26 जून 2024। राजस्थानी भाषा अकादमी के तत्वावधान में जैन विश्वभारती संस्थान में आयोजित सप्त दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय राजस्थानी समर स्कूल कार्यक्रम में कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ ने कहा है कि राजस्थानी एक समृद्ध भाषा है। राजस्थानी का साहित्य विशाल है। प्राचीनकाल से ही कवियों ने राजस्थानी में अपनी कलम चलाई और इसे समृद्ध बनाया। उन्होंने राजस्थानी में लिखी हुई पांडुलिपियों व प्राचीन अप्रकाशित ग्रंथों के प्रकाशन की आवश्यकता बताई तथा राजस्थानी भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति आदि के चहुंमुखी विकास और उन्नयन के लिए अनेक सुझाव प्रस्तुत किए तथा राजस्थानी भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति के चहुंमुखी विकास के लिये सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता बताई। उन्होंने जैन विश्वभारती संस्थान में स्थापित ‘राजस्थानी भाषा एवं साहित्य शोध केन्द्र की जानकारी दी और राजस्थानी भाषा के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए किए जा रहे कार्यों के बारे में बताया।

प्राचीन ग्रंथों व कलाओं पर हुआ विमर्श

वल्र्ड समर स्कूल में विभिन्न वक्ताओं द्वारा राजस्थानी भाषा एवं साहित्य पर विमर्श किया गया और राजस्थान के समृद्ध इतिहास, संस्कृति वं परम्पराओं की उत्कृष्टता पर चर्चा की गई। राजस्थानी भाषा अकादमी के विशेष कोठारी ने राजस्थान की संस्कृति, परम्पराओं, कला, इतिहास और भाषा के बारे में बताया। इसमें राजस्थानी भाषा और साहित्य के प्रेमाख्यान, डिंगल काव्य, संत और जैन साहित्य, राजस्थानी गजल, शेखावाटी के भीत्ति चित्रों, नृवंश विज्ञान की दृश्य-कलाएं, हस्तकला और लोक संगीत पर विशेष फोकस किया गया। वल्र्ड समर स्कूल के 7 दिवस में इन्हीं पर चर्चाएं-विमर्श किया गया। 12वीं से 19वीं शताब्दी तक के काव्य, युद्ध इतिहास, शहरी इतिहास और धार्मिक साहित्य जैसे क्षेत्रों से सम्बद्ध ग्रंथों पर कार्यशालाएं आयोजित की गई। इन कार्यशालाओं में फोकस ग्रंथों में कुवलयमाला (8वीं शताब्दी), कुमारपाल चरित (12वीं शताब्दी), दादू जन्मलीला परची (17वीं शताब्दी), सुंदरदास का सवैया ग्रंथ (17वीं शताब्दी), सतीनामा (16वीं शताब्दी), रघुनाथ रूपक (19वीं शताब्दी), छत्रपति रासो (17वीं शताब्दी), माताजी री वचनिका (18वीं शताब्दी) और रघुनाथ रूपक (19वीं शताब्दी) आदि ग्रंथ शामिल थे। जैन राजस्थानी गजल, बीकानेर राज्य से पट्टा बही और पट्टे री गवा री बही भी इनमें प्रमुख रही। संगीतकार और हस्तकला के कारीगर समुदायों और स्थानीय तीर्थस्थलों के नृवंशविज्ञान का आईएनआर अध्ययन किया गया।

इन विद्वानों ने किया मागदर्शन

इस सात दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय समर स्कूल में यूटी आस्टिन के प्रो. दलपतराज भंडारी, न्यूयार्क यूनिविर्सटी के प्रो. दीप्ति खेड़ा, ओपी जिंदल ग्लोबल युनिवर्सिटी के प्रो. सौम्या अग्रवाल, लाॅस एंजेल्स की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से मुकेश कुलरिया, राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर के डाॅ. नितिन गोयल, प्रो. गजादान चारण, प्रो. आयला जाॅनकीरी आदि विद्वानों के अलावा जैन विश्वभारती संस्थान के डाॅ. समणी संगीप्रज्ञा, प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन, प्रो. समणी कुसुमप्रज्ञा, प्रो. बीएल जैन, डाॅ. सत्यनारायण भारद्वाज आदि ने भी सम्भागियों का मार्गदर्शन किया।

 

राजस्थानी भाषा के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए ‘राजस्थानी भाषा एवं साहित्य शोध केन्द्र’ की स्थापना- प्रो. त्रिपाठी

लाडनूँ, 20 जून 2024। जैन विश्वभारती संस्थान में राजस्थानी भाषा अकादमी के तत्वावधान में आयोजित सप्त दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय राजस्थानी समर स्कूल कार्यक्रम में राजस्थानी भाषा एवं साहित्य पर विमर्श के दौरान राजस्थान के समृद्ध इतिहास, संस्कृति वं परम्पराओं की उत्कृष्टता पर चर्चा की गई। कार्यक्रम में दूरस्थ एवं आॅन लाईन शिक्षा केन्द्र के निदेशक प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में जैन विश्वभारती संस्थान की प्राच्य विद्या एवं राजस्थानी भाषा के लिए किए जा रहे प्रयासों के बारे में बताते हुए कहा कि यहां मूल्यपरक शिक्षा को बढावा देने के साथ ही राजस्थानी भाषा के महत्व को भी समझा गया है। इसी कारण यहां राजस्थानी भाषा के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए अपनी भूमिका निभाते हुए संस्थान में ‘राजस्थानी भाषा एवं साहित्य शोध केन्द्र’ की स्थापना की गई। कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ के नेतृत्व में यहां विभिन्न अकादमिक कार्यों की आयोजना निरन्तर की जा रही है। कार्यक्रम के प्रारम्भ में सभी प्रतिभागियों ने अपना-अपना परिचय प्रस्तुत किया।

राजस्थानी छंदो व काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया

राजस्थानी भाषा अकादमी के विशेष कोठारी ने राजस्थान की पृष्ठभूमि बताते हुए उसमें लाडनूँ के परिचय व महत्व को भी बताया और यह महत्वपूर्ण कार्यक्रम लाडनूं में रखे जाने का औचित्य भी बताया। द्वितीय सत्र में दलपत राज पुरोहित ने एक राजस्थानी पांडुलिपि ‘सतीनामा’ कावाचन करवाया एवं उसमें वर्णित भावों की व्याख्या की। साथ ही उन्होंने इस पांडुलिपि में आए साहित्यिक तत्वों पर भी प्रकाश डाला। तृतीय सत्र में डाॅ. गजादान चारण ने राजस्थानी साहित्य की विविध विधाओं पर प्रकाश डालते हुए राजस्थानी छंदों एवं अन्य काव्य-तत्वों को व्याख्यायित किया। इसके बाद जैती जैचंद कृत ‘माताजी की वचनिका’ ग्रंथ का वाचयन करते हुए इसकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला।

दुर्लभ पांडुलिपियां देख हुए प्रसन्न

चतुर्थ सत्र में सभी प्रतिभागियों ने जैन विश्वभारती संस्थान परिसर का भ्रमण किया। उन्होंने यहां वर्द्धमान ग्रंथागार केन्द्रीय पुस्तकालय में विभिन्न विषयों के दुर्लभ ग्रंथों का अवलोकन किया। साथ ही पांडुलिपियों के विशेष संग्रह को देख कर उनके संरक्षण एवं संवर्द्धन की प्रक्रिया को समझा। सभी प्रतिभागियों ने विशाल पांडुलिपि-संग्रह को देख कर अचरज व्यक्त किया और सराहना करते हुए इसे दुर्लभ बताया। प्रतिभागियों को यह भ्रमण करवाने व मार्गदर्शन करवाने में प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन, प्रो. समणी कुसुमप्रज्ञा, प्रो. बीएल जैन, डाॅ. सत्यनारायण भारद्वाज, निखिल राठौड़, डाॅ. रामदेव साहू व डाॅ. प्रद्युम्नसिंह शेखावत साथ में रहे।

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